क़ानून ज्यादा सक्षम या सामाजिक नैतिकता का बोध ?

कोई भी क़ानून .....चाहें महिला सशक्तीकरण के लिए हो या भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए ....मानव -वध रोकने के लिए हो या .....बलात्कार की घटनाओं को रोकने के लिए , कोई भी क़ानून अपराध को रोक पाने में असमर्थ ही रहा है .....जबकि क़ानून के अनुपालन और न्याय के लिए कितनी बड़ी मशीनरी पूरे देश में सालों से....सदियों से जुटी है 

मेरी समझ में नैतिक -शिक्षा जो पहले समाज में जब शिक्षा का प्रसार इतना नहीं था ...साक्षरता कम थी ....लोग निरक्षर होने के बाद भी नैतिक -मूल्यों के प्रति ज्यादा सजग और तत्पर थे ....अब नैतिक -मूल्यों पर उपदेश देने वाले बड़े-बड़े पांडाल भी खंडहर सरीखे हो गए हैं ....और जब उनमे चहल-पहल थी तब भी उन्होंने व्यावसायिक गतिविधियाँ ही ज्यादा थीं और संस्कार शिक्षा भजन-कीर्तन और सामूहिक डांस में खो ही जाती थी 

घर में टीवी ही सबसे बड़ा शिक्षा का उपकरण बना हुआ ....जो अनैतिक /नैतिक मूल्यों से बाखबर करता है अपने व्यावसायिक हितों के अनुरूप 

क्या शिक्षा के स्थानों में और परिवार में भी नैतिक मूल्यों और नैतिक शिक्षा को सबसे ज्यादा तरजीह नही दी जानी चाहिए ?

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