लोकतंत्र में, विधानसभा और लोकसभा के निर्वाचित सदस्य आम नागरिकों के हित में कानून बनाने के लिए अधिकृत होते हैं और वे अन्य लोगों की अपेक्षा जनता की भावनाओं से अधिक परचित होते हैं| स्वार्थ की पूर्ति और अनधिकृत का भोग मानव की प्रकृति है इस दुर्वृत्ति के कारण वह लोभ मोह के कीचड़ में फंसता जाता है| इस कीचड़ से बाहर निकालने के यत्न एक ओर समाज सुधारक निष्पृह भाव से करते रहते हैं तो दूसरी ओर धार्मिक संघठन भी करते रहते है|
धार्मिक संघठनों की अपनी एक व्यवस्था होती है जिसे संचालित करने के लिए धनबल, जनबल के साथ-साथ सत्ता बल की भी आवश्यकता पड़ती है| इस आवश्यकता के कारण सत्ता और धर्मतंत्र के मध्य परस्पर संधि रहती है और वे एक दूसरे के पूरक होते हैं| यह आदि काल से चला आ रहा है इसी संधि के तहत राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता था| इस गठजोड़ ने शक्ति संपन्न होने के नाते जनता का असीमित दोहन युगों-युगों तक किया| लोकतंत्र ने इस गठबंधन को कमजोर किया और मानव को शक्ति प्रदान की तथा न्यायव्यवस्था को कुछ सीमा तक लोक हितैषी बनाया|
इस युगीन परिवर्तन ने राजनैतिक व्यवस्था को अधिक शक्ति प्रदान की और धर्मतंत्र के ऊपर भी उसका कानूनी शिकंजा कसा गया| इस शिकंजे से उबरने का साधन केवल धार्मिक अन्धविश्वास है| वह जनता में जितना पैर जमायेगा लोकतंत्र उतना कमजोर होगा और न्याय व्यवस्था लचर क्योंकि अंतिम शक्ति लोकतंत्र में जनता के पास रहती है| जनता जितनी जड़ बनी रहेगी वह उतनी ही चेतनाहीन होगी और धार्मिक आर्थिक शोषण से नहीं लड़ सकेगी इसके विपरीत लोकतंत्र के विरुद्ध उसका उपयोग आर्थिक और धार्मिक शक्तियां करती रहेंगी|
सम्प्रति यही हो रहा है आर्थिक शक्तियों ने और धार्मिक शक्तियों ने मिलकर लोकतंत्र को कमजोर करने का उपक्रम चला रक्खा है जिसके तहत राजनैतिक सरोकार भयाक्रांत हैं और उन्होंने एक तरह से इन दोनों के आगे समर्पण कर दिया है|
चूँकि जनता अनधिकृत चाहती है और वह अनधिकृत केवल सत्ता शासन के द्वारा प्राप्त हो सकता है अतः राजनैतिक दलों को जनता से ऐसे वायदे करने पड़ते हैं जो उन्हें भ्रष्ट होने के लिए मजबूर करते हैं और वे यह बात सार्वजनिक रूप से कह नहीं सकते क्योंकि उन्हें जनता का वोट चाहिये|इस वोट की चाहत ने राजनैतिक वर्ग का आत्मविश्वास कमजोर कर दिया है और आर्थिक तथा धार्मिक शक्तियों को इनके विरुद्ध वातावरण बनाने का अवसर प्रदान कर दिया है जिसकी परिणति है सामाजिक दुर्व्यवस्था|
बढ़ते हुए अपराध, परिवारों का टूटन, शैक्षिक तंत्र का पंगु होना, आचरण में गिरावट, सामाजिक विघटन यह बाजारवाद की दें है| यह बाज़ार स्वप्निल दुनिया दिखाकर समाज और सरकार को अपने नियंत्रण में रखना चाहता है| वर्तमान में राजनैतिक अविश्वसनीयता और बदलाव इसी की देन है|
भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोकपाल का जन्म इस आर्थिक और धार्मिक दुरभिसंधि का प्रतिफलन है जिसे राजनैतिक दलों ने मजबूरन यह जानते हुए भी की यह लोकतंत्र और संविधान विरोधी है ४५-४६ वर्ष के उपरांत पास करने की विवशता को स्वीकार कर लिया|
धार्मिक संघठनों की अपनी एक व्यवस्था होती है जिसे संचालित करने के लिए धनबल, जनबल के साथ-साथ सत्ता बल की भी आवश्यकता पड़ती है| इस आवश्यकता के कारण सत्ता और धर्मतंत्र के मध्य परस्पर संधि रहती है और वे एक दूसरे के पूरक होते हैं| यह आदि काल से चला आ रहा है इसी संधि के तहत राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता था| इस गठजोड़ ने शक्ति संपन्न होने के नाते जनता का असीमित दोहन युगों-युगों तक किया| लोकतंत्र ने इस गठबंधन को कमजोर किया और मानव को शक्ति प्रदान की तथा न्यायव्यवस्था को कुछ सीमा तक लोक हितैषी बनाया|
इस युगीन परिवर्तन ने राजनैतिक व्यवस्था को अधिक शक्ति प्रदान की और धर्मतंत्र के ऊपर भी उसका कानूनी शिकंजा कसा गया| इस शिकंजे से उबरने का साधन केवल धार्मिक अन्धविश्वास है| वह जनता में जितना पैर जमायेगा लोकतंत्र उतना कमजोर होगा और न्याय व्यवस्था लचर क्योंकि अंतिम शक्ति लोकतंत्र में जनता के पास रहती है| जनता जितनी जड़ बनी रहेगी वह उतनी ही चेतनाहीन होगी और धार्मिक आर्थिक शोषण से नहीं लड़ सकेगी इसके विपरीत लोकतंत्र के विरुद्ध उसका उपयोग आर्थिक और धार्मिक शक्तियां करती रहेंगी|
सम्प्रति यही हो रहा है आर्थिक शक्तियों ने और धार्मिक शक्तियों ने मिलकर लोकतंत्र को कमजोर करने का उपक्रम चला रक्खा है जिसके तहत राजनैतिक सरोकार भयाक्रांत हैं और उन्होंने एक तरह से इन दोनों के आगे समर्पण कर दिया है|
चूँकि जनता अनधिकृत चाहती है और वह अनधिकृत केवल सत्ता शासन के द्वारा प्राप्त हो सकता है अतः राजनैतिक दलों को जनता से ऐसे वायदे करने पड़ते हैं जो उन्हें भ्रष्ट होने के लिए मजबूर करते हैं और वे यह बात सार्वजनिक रूप से कह नहीं सकते क्योंकि उन्हें जनता का वोट चाहिये|इस वोट की चाहत ने राजनैतिक वर्ग का आत्मविश्वास कमजोर कर दिया है और आर्थिक तथा धार्मिक शक्तियों को इनके विरुद्ध वातावरण बनाने का अवसर प्रदान कर दिया है जिसकी परिणति है सामाजिक दुर्व्यवस्था|
बढ़ते हुए अपराध, परिवारों का टूटन, शैक्षिक तंत्र का पंगु होना, आचरण में गिरावट, सामाजिक विघटन यह बाजारवाद की दें है| यह बाज़ार स्वप्निल दुनिया दिखाकर समाज और सरकार को अपने नियंत्रण में रखना चाहता है| वर्तमान में राजनैतिक अविश्वसनीयता और बदलाव इसी की देन है|
भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोकपाल का जन्म इस आर्थिक और धार्मिक दुरभिसंधि का प्रतिफलन है जिसे राजनैतिक दलों ने मजबूरन यह जानते हुए भी की यह लोकतंत्र और संविधान विरोधी है ४५-४६ वर्ष के उपरांत पास करने की विवशता को स्वीकार कर लिया|
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